आश्रम के मुख्य द्वार पर लगे शिलालेख से यह ज्ञात होता है कि आश्रम का अधिकतर निर्माणकार्य 1912 ई0 में ही पूरा हो चुका था। दुर्दैववश आश्रम की स्थापना के तीन वर्षों के पश्चात् ही आश्रम के संस्थापक दोनों महापुरुष एक ही वर्ष सन् 1915 ई0 में ब्रह्मलीन हो गये। तदनन्तर श्री बाबा ब्रह्मदास जी महाराज के परम सुयोग्य शिष्य श्री स्वामी मयाराज जी महाराज ने आश्रम के शेष निर्माण कार्य को सम्पन्न किया तथा उन्होंने 12 सदस्यों की एक समिति गठित करके 1 मार्च 1917 ई0 को इसका पञ्जीकरण भी करवा दिया। श्री स्वामी मयाराज जी महाराज के ब्रह्मलीन होने पर बाबा ब्रह्मदास जी महाराज के अपर योग्यतम शिष्य श्री स्वामी शिवरामदास जी महाराज इस आश्रम के महन्त (प्रबन्धक) बनाये गये।
सन् 1933 ई0 में जब श्री स्वामी शिवरामदास जी भी ब्रह्मलीन हो गये, तब उनके परम तपोनिष्ठ शिष्य सन्तप्रवर श्री स्वामी रामप्रकाश जी महाराज ने आश्रम के महन्त/प्रबन्धक के दायित्व को संभाला। उन्होंने लगभग 51 वर्षों की लम्बी अवधि तक पूर्ण समर्पण भाव से इस आश्रम का सञ्चालन किया एवं अपनी कार्यकुशलता से इसकी कीर्ति में चार चाँद लगा दिये। इधर महन्त जी महाराज आश्रम में रहकर आश्रम की मर्यादा को अक्षुण्ण रखते हुए सम्यक् संचालन करते थे, तो उधर दूसरी तरफ उनके गुरुभाई स्वामी गंगादास जी महाराज ने घर-घर, गांव-गांव घूमकर प्राचीन अवधूत मण्डल आश्रम के सेवाकार्यों को बढाते थे तथा आश्रम के खातेदार बनाने में दिन-रात एक कर देते थे। इसी प्रकार तपोमूर्ति अद्भुत प्रतिभा के विद्वान् एवं प्रखर वक्ता श्री स्वामी गुरुचरण दास जी महाराज जिन्हें भक्तजन ‘पण्डित जी' के नाम से जानते थे, उन्होंने आश्रम की समिति के अध्यक्ष पद को सुशोभित करते हुए पूरे भारतवर्ष में भ्रमण कर धर्मप्रचार करते हुए जनता-जनार्दन का मार्गदर्शन एवं निराकारी सम्प्रदाय की प्रतिष्ठा में श्रीवृद्धि की। इस प्रकार वे जनता में सभी वर्गों के अन्तर्गत बड़े ही लोकप्रिय एवं पूज्य हुए। इन दोनों महापुरुषों ने स्वामी गोविन्द प्रकाश जी महाराज को साथ लेकर इस आश्रम एवं इसकी शाखाओं से इतर स्थलों में भी नगर-नगर एवं गाँव-गाँव में कन्या विद्यालय, महाविद्यालय, चिकित्सालय, गोशाला, मन्दिर, धर्मशाला आदि का निर्माण करवाकर जन-जन को असाधारण रूप से उपकृत किया तथा चारों दिशाओं में अवधूत मण्डल तथा निराकारी सम्प्रदाय का नाम एवं मान ऊँचा किया। इस प्रकार इन श्री महन्त जी ने प्रबन्धक के रूप में कुशल प्रशासन के द्वारा आश्रम की छवि को चार चांद लगाये।
दुर्भाग्यवश सन् 1978 ई0 के अन्त में पण्डित जी महाराज ब्रह्मलीन हो गये। तब पूज्यपाद स्वामी श्री गोविन्द प्रकाश जी महाराज (जो महन्त श्री स्वामी रामप्रकाश जी महाराज के शिष्यों में वरिष्ठ एवं महान् विद्वान् तथा कुशलतम प्रशासक संचालक थे) के अनेकानेक शिष्यों में अग्रणी तथा वेदान्तमार्तण्ड अति प्रखरवक्ता परमविरक्त श्री स्वामी हंसप्रकाश जी महाराज आश्रम समिति के अध्यक्ष बनाये गये, आपने अपने दादा-गुरु पण्डित जी महाराज के चरण चिह्नों का अनुकरण करते हुए उसी प्रकार से देशभर में घूम-घूम कर धर्म-प्रचार करना अपने जीवन का लक्ष्य निर्धारित किया एवं लगातार अन्त तक इसी भाव से सेवा करते रहे। इस प्रकार लगातार 51 वर्षो तक महन्त का उत्तरादायित्त्व ग्रहण करने के बाद मई सन् 1984 को महन्त श्री स्वामी रामप्रकाश जी महाराज आश्रमवासियों को बिलखता छोड़कर ब्रह्मलीन हो गये। तब आश्रम ने अपनी बैठक में सर्व-सम्मति से श्री स्वामी हरप्रकाश जी शास्त्री, वेदान्ताचार्य, जो स्वामी रामप्रकाश जी महाराज के शिष्यों में अन्यतम थे, को इस आश्रम का महन्त/प्रबन्धक बनाने का प्रस्ताव सर्वसम्मति से पारित किया। तदनुसार 3 मई 1985 को पूर्वमहन्त स्वामी रामप्रकाश जी महाराज की प्रथम पुण्यतिथि (पहली वर्षी) के अवसर पर स्वामी श्री हरप्रकाश जी महाराज की महन्ती (पगड़ी) की रस्म श्री भेष भगवान् द्वारा विशाल साधु समाज एवं भक्त समुदाय की उपस्थिति में विधिपूर्वक सम्पन्न की गई।
यहाँ संक्षेप में यह उल्लेख करना भी उपयोगी होगा कि सन् 1955 में श्री स्वामी हीरादास जी एवं श्री स्वामी ब्रह्मदास जी की शिष्य परम्परा में मतभेद हो जाने के कारण इस आश्रम का बँटवारा हो गया तथा दोनों पक्षों के पृथक्-पृथक् महन्त बनाये गये। प्रथम पक्ष-जिसका नाम ‘प्राचीन अवधूत मण्डल आश्रम' (स्वामी ब्रह्मदास) हुआ, महन्त श्री स्वामी रामप्रकाश जी महाराज ही हुए, जो पहले से ही अर्थात् सन् 1933 से ही महन्त चले आ रहे थे, इससे पहले अविभक्त आश्रम का नाम-‘अवधूत मण्डल आश्रम' हुआ करता था।
स्वामी हरप्रकाश जी महाराज ने लगभग 17 वर्षों तक आश्रम के सभी क्रियाकलापों का विधिवत् संचालन किया। उनके कार्यकाल में ही उनकी सूक्ष्म दृष्टि से आश्रम का न केवल चतुर्दिक विस्तार किया गया, अपितु इसके आय के विविध स्रोत पैदा कर नियमित एवं सुस्थिर आय की अविरल धारा का निर्माण किया और बहुत पुराने एवं जीर्ण-शीर्ण हो चुके आश्रम के प्रायः सभी भागों का नवीनीकरण कर एक प्रकार से इसका कायाकल्प कर दिया गया, जिनका क्रमश: विवरण आगे दिया जायेगा।
दुर्भाग्यवश दिनांक 3.3.2002 को स्वामी हरप्रकाश जी महाराज ब्रह्मलीन हो गये, तब उनके गुरुभाई एवं सदा से ही निकट सहयोगी श्री स्वामी अनन्तप्रकाश जी महाराज, जो इससे पूर्व वृन्दावन धाम स्थित ब्रह्म-निवास आश्रम का कार्यभार संभाले हुए थे सर्वसम्मति से महन्त/प्रबन्धक बनाने का प्रस्ताव पारित किया। इनका महन्त/प्रबन्धक पद पर पट्टाभिषेक दिनांक 5 मार्च 2003 को भव्य समारोहपूर्वक किया गया, जिसमें पञ्चपुरी के गण्यमान्य पूज्य महामण्डलेश्वर एवं महन्तगण उपस्थित हुए। परन्तु बड़े खेद का विषय है कि वे अधिक दिनों तक महन्त/प्रबन्धक पद को सुशोभित नहीं कर पाये। वे महन्त पद पर अभिषिक्त होने के कुछ समय बाद ही दिनांक 14.11.2003 को दुर्दैववश ब्रह्मलीन हो गये। तब सर्वसम्मति से श्री हंस प्रकाश जी महाराज (वेदान्ताचार्य, एम0 ए0) को महन्त पद पर अभिषिक्त किये जाने का प्रस्ताव निर्विरोध पारित किया। श्री स्वामी जी महाराज पहले से ही अर्थात् सन् 1978 से आश्रम की समिति के अध्यक्ष चले आ रहे थे तथा अध्यक्ष के रूप में पूरे देश में घूम-घूमकर धर्मध्वजा फहरा रहे थे, उन्हें ही सर्वसम्मति से अध्यक्ष पद के साथ-साथ महन्त पद का दोहरा दायित्व निर्वहण करने की लिए तैयार करने का निर्णय लिया। तदनुसार दिनांक 14.03.2004 को महान् साधुसंगत, महन्तों, महामण्डलेश्वरों सहित भक्तमण्डलों की विशाल उपस्थिति में श्री स्वामी हंसप्रकाश जी महाराज का महन्त पद पर पट्टाभिषेषक किया गया, साधु समाज एवं भेषभगवान् द्वारा पगड़ी पहनाकर चादरें ओढ़ाई गई।
स्थल स्थिति:-
प्राचीन अवधूत मण्डल आश्रम, गुरुकुल कांगड़ी (सिंहद्वार चौक) के निकट, ज्वालापुर, हरिद्वार, उत्तराखण्ड राज्य, भारत में स्थित है। हरिद्वार (उत्तराखंड राज्य की राजधानी) देहरादून से लगभग
55 किमी और (भारत की राजधानी) नई-दिल्ली से लगभग
200 किमी की दूरी पर है तथा सड़क मार्ग और रेल मार्ग से जुड़ा हुआ है, नई दिल्ली के अंतर्राष्ट्रीय विमान मथक और देहरादून के राष्ट्रिय विमान मथक द्वारा आसानी से आने का मार्ग है। हरिद्वार चारधामों (यमनोत्री, गंगोत्री ,केदारनाथ तथा बद्रीनाथ) का प्रवेश द्धार है। हरिद्वार को हरद्वार भी कहा जाता है। इतिहास के अनुसार, वैष्णव संप्रदाय के अनुयायी हरद्वार को भगवान शिव को नगरी मानते है। दोनों संप्रदाय की मान्यता सही है, क्योंकि चारधाम में से दो धाम (यमनोत्री तथा बद्रीनाथ) भगवान विष्णु के है और दो धाम (गंगोत्री तथा केदारनाथ) भगवान शिव के है।