निराकारी सम्प्रदाय का आविर्भाव वैष्णव सम्प्रदाय से हुआ। इस सम्प्रदाय के जन्मदाता श्री स्वामी सरयूदास जी महाराज थे। श्री स्वामी जी का जन्म स्थान पटियाला इलाके के समाणा मण्डी के पास भड़पुरी नामक ग्राम था। पटियाला (पंजाब) की महारानी श्रीमती चमकौर ने श्री स्वामी सरयूदास जी महाराज के निवास के लिए अपना चमनशाही नामक बाग सम्वत् 1812 तदनुसार सन् 1762 ई0 में स्वामी जी को अर्पण किया था। उस समय श्री स्वामी जी महाराज की अवस्था 40 वर्ष की थी। सम्वत् 1890 तदनुसार सन् 1853 में श्री स्वामी सरयूदास जी महाराज अपने पञ्चभौतिक कलेवर का परित्याग कर ब्रह्मलीन हो गये। पटियाला नगर में समाधि नाम से प्रसिद्ध आश्रम में श्री स्वामी सरयूदास जी महाराज की समाधि आज भी विद्यमान है। श्री स्वामी सरयूदास जी महाराज के तीन शिष्य थे। 1.श्री स्वामी भरतदास जी महाराज। 2. श्री स्वामी सेवादास जी महाराज। 3. श्री स्वामी प्रेमदासजी महाराज। इन्हीं तीनों महापुरुषों से निराकार सम्प्रदाय का विस्तार हुआ। श्री स्वामी सरयूदास जी महाराज ने 111 वर्ष तक इस संसार में रहकर अपने तप संयम एवं योग-सिद्धियों के द्वारा श्रद्धालु जनता को सन्मार्ग दिखाया। स्वामी जी ऐश्वर्य शक्ति एवं अष्टसिद्धियों से सम्पन्न थे। निराकार उपासक होते हुए भी लोकसंग्रह के लिए श्री स्वामी जी महाराज साकार ब्रह्म मर्यादा पुरुषोत्तम भगवान् राम के अनन्य उपासक थे।
निराकारी या निरीकारी
आकार या ईकार दोनों शब्द आकृतिवाची हैं। जो आकार से रहित हो, उसको निराकार या निरीकार कहते हैं। जिसमें आकार होगा उसमें नाम और रूप भी होंगे। जो वस्तु नाम रूप से युक्त होगी वह मिथ्या होगी। इसलिए परब्रह्म परमात्मा वास्तव में निराकार ही है। आकार नाम रूप आदि तो माया के कार्य हैं। निराकार ब्रह्म जिसका वास्तविक इष्ट हो उसको निराकारी या निरीकारी कहा जाता है। यही निराकार ब्रह्म वेदान्तदर्शन का मुख्य विषय है। इसी निराकार ब्रह्म का शांकर वेदान्त के प्रवर्तक श्री स्वामी शंकराचार्य जी ने गीता उपनिषद् ब्रह्मसूत्रादि ग्रन्थों के भाष्यों में बड़े ऊहापोह के साथ प्रतिपादन किया है।
निराकारी सम्प्रदाय का विकास
निराकारी सम्प्रदाय का पंजाब प्रान्त में अधिक प्रचार-प्रसार हुआ, विशेष रूप से पश्चिमी पंजाब (पाकिस्तान) में। श्री स्वामी ब्रह्मदास जी महाराज अधिकतर पश्चिमी पंजाब में ही भ्रमण करते थे। वे अपने समय एक अलौकिक महापुरुष के रूप में प्रख्यात थे। ये अवधूत थे, केवल एक कौपीन धारण करते थे और नगर, ग्राम के बाहर वृक्ष के नीचे निवास किया करते थे। इनकी दैनिकचर्या थी-तप, संयम पूर्वक ईश्वर आराधना एवं अध्यात्म-मार्ग का प्रचार-प्रसार करना। ये केवल शास्त्रों के उपदेष्टा ही नहीं थे, अपितु अपने जीवन में उतारे हुए थे।
पुरा धाता भ्रमि चक्रे, कान्तासु कनकेषु च।
तासु तेष्वप्यनासक्तः, साक्षात् भर्गो नराकृतिः।।
अर्थ-सृष्टि के आदि में ब्रह्मा ने संसार की रचना की, तब यह सोचकर की कि जो मैंने सृष्टि बनाई है, वह प्रवाह रूप से चलता रहे। अतः कामिनी और कनक (स्त्री और धन) में कुम्हार के चाक की तरह इन दोनों में भ्रमि भर दिया। इन दोनों से जन्म-मरण रूपी संसार का प्रवाह चलता रहता है। जो वीतराग महापुरुष इन दोनों की आसक्ति से रहित होकर संसार में रहते हैं, वे साक्षात् भगवान् हैं।
द्व एव ब्रह्मणो रूपे , चरं चाचरमेव च।
चरं संन्यासिनो रूपम्, अचरं प्रतिमादिकम्।।
अर्थ-चर और अचर दो प्रकार के भगवान् के रूप हैं। वीतराग संन्यासी महापुरुष ही भगवान् के चर रूप हैं। शास्त्रविधि से स्थापित मन्दिर आदि में भगवान् के प्रतिमादि ही भगवान के अचर रूप हैं।
निराकारी सम्प्रदाय की विशेषता
निराकारी सम्प्रदाय पूर्णतया समन्वयवादी है। सभी धर्म एवं जाति को समान रूप से मान्यता प्रदान करता है। गुण के आधार पर वरीयता देता है। जाति सम्प्रदाय आदि के भेदभाव का विरोधी होने के साथ-साथ देश और समाज के उत्थान एवं सेवा में विश्वास रखता है। शास्त्र तथा लोक-सम्मत धर्म का अनुसरण करता है। क्योंकि सच्चा धर्म वही है, जो अभ्युदय (लोकोन्नति) तथा निःश्रेयस (मोक्ष) का साधन हो।
श्रूयतां धर्मसर्वस्वं, श्रुत्वा चाप्यवधार्यताम्।
आत्मनः प्रतिकूलानि परेषां न समाचरेत्।।[-पञ्चतन्त्रम्, मित्रसम्प्राप्तिः।।]
अर्थ-ए संसार के मनुष्यो, धर्म का सार-सिद्धान्त सुनो और सुनकर धारण करो। जो आचार व्यवहार आदि अपने को अच्छा नहीं लगता, वह दूसरों के प्रति मत करो।
सर्वे भवन्तु सुखिनः, सर्वे सन्तु निरामयाः।
सर्वे भद्राणि पश्यन्तु, मा कश्चिद् दुःखभाग्भवेत्।।
अर्थ-सभी प्राणी सुखी रहें और सभी रोग-व्याधि से मुक्त हो जायें। सभी प्राणी एक दूसरे की भलाई, उन्नति की कामना करें और सभी सुखी रहें कोई दुःखी न हों। ऐसी भावना अपने अन्दर उत्पन्न करनी चाहिए और यथा शक्ति क्रियान्वित करना चाहिये। इत्यादि सूक्तियों के सार-सिद्धान्त को निराकारी सम्प्रदाय अपने जीवन में उतारने का सदा प्रयास करता है।
अतः इन्हीं परोपकारिणी भावनाओं के कारण पश्चिमी पंजाब में सम्भवतः ऐसा कोई नगर नहीं रहा होगा, जहाँ निराकारी सम्प्रदाय की कुटिया न हो। इन कुटियों का मुख्य उद्देश्य यही रहा है कि प्रत्येक वर्ग के प्राणियों को भारतीय संस्कृति और सभ्यता से ओतप्रोत कर परस्पर मैत्रीभाव के द्वारा एकता के मार्ग पर चलने को प्रेरित किया जाय। दुर्भाग्यवश भारत का बँटवारा होने पर पश्चिमी पंजाब से आये शरणार्थियों के लिए महापुरुषों द्वारा संस्थापित यह प्राचीन अवधूत मण्डल आश्रम तत्काल कल्पवृक्ष के समान अभिलषित शरणदाता सिद्ध हुआ। आज भी निराकारी सम्प्रदाय पंजाब, हरियाणा, दिल्ली, उत्तर प्रदेश आदि प्रान्तों में सर्वत्र फैला हुआ है। जिसमें अनेक स्कूल, कॉलेज, सार्वजनिक सभाओं की स्थापना के समाज की सेवा कर रहा है। इसमें श्री स्वामी ब्रह्मदास महाराज का त्याग, तपस्या एवं जनता में प्रसिद्ध उनकी सिद्धि का विशेष योगदान रहा है। उन्हीं महापुरुषों के मार्ग का अनुसरण करते हुए आज भी श्री अवधूत मण्डलाश्रम जातीय, प्रान्तीय साम्प्रदायिकता आदि भेदभावनाओं से ऊपर उठकर सभी वर्ग के अतिथियों की समान रूप से सेवा कर रहा है।
प्रस्तुत ग्रन्थ के प्रकाशन का उद्देश्य यही है कि आज भौतिकवादी युग में सभी हिन्दू जनता अपने नवोदित बालक-बालिकाओं को धार्मिक ग्रन्थों को पढ़ावें एवं अभ्यास करावें, जिससे समाज में अहिंसा, सत्य, अस्तेय, ब्रह्मचर्य, अपरिग्रह, शौच, सन्तोष, तप, स्वाध्याय, ईश्वरप्रणिधानादि व्यवहारों का प्रचार और परिवार में माता-पिता की सेवा, अतिथिसेवा, गौसेवा, राष्ट्रसेवा तथा नरसेवा नारायणसेवा का भाव जन-जन में जागृत हो सके। समाज में धार्मिक भावना उत्पन्न हो। क्योंकि बुरे कर्म और बुरी संगत से स्थाई रूप से बचाने वाली एक मात्र धार्मिक भावना ही है, अतः प्राणीमात्र को ईश्वर की सत्ता स्वीकार करनी परम आवश्यक है। केवल भौतिकवाद की मशीनरी बनकर न रह जाये विज्ञानवाद के प्रचण्ड संताप से संतप्त प्राणियों को शान्ति प्रदान करने वाला एक मात्र आत्मवाद ही है। अन्त में ‘महाजनो येन गतः स पन्थाः' महापुरुष जिस मार्ग से चलें, वहीं सच्चा मार्ग है, उसी मार्ग का अनुसरण करना चाहिए।