महामण्डलेश्वर श्री श्री 1008 स्वामी रूपेंद्र प्रकाश शास्त्री जी महाराज का संक्षिप्त परिचय
भारतमाता की कोख से एक आत्मा ने मानवीय शरीर धारण किया, जिसका नाम माता-पिता और गुरुजन ने ‘रूपेन्द्र' रखा। माता-पिता ने कुलधर्मानुसार उसे पढाने के लिये विद्यालय में प्रविष्ट कराया। पढने में प्रबुद्ध तथा विचारवान इस बालक को पाकर अध्यापक भी इसकी प्रशंसा करते न अघाते थे। संसार की नश्वरता को देखकर कुछ लोगों के मन में बाल्यावस्था से ही वैराग्य की भावना उत्पन्न हो जाती है। यह बालक धीरे-धीरे बाल्यावस्था से युवावस्था में प्रवेश करने लगा, किन्तु उसका व्यवहार और जीवनशैली अन्य सब बालकों से भिन्न थी। उसने सांसारिक उपाधिशिक्षा यथाशीघ्र प्राप्त कर ली, जिसमें संस्कृत, हिन्दी, गणित, विज्ञान, समाजशास्त्र, अर्थशास्त्र, भूगोल, खगोलशास्त्र, धर्मशास्त्र एवं व्यवहारशास्त्र का बोध प्राप्त कर वह अन्य बालकों से भिन्न दिखायी देने लगा और इसी बीच उसके मस्तिष्क में भाषाज्ञान की ललक ने उसे हिन्दी, संस्कृत, अंग्रेजी, पंजाबी, गुजराती भाषाओं के साथ-साथ लोकभाषा सीखने को मजबूर कर दिया। इस बालक ने इन भाषाओं को गम्भीरता से सीखा तथा इसमें विद्यमान विभिन्न महापुरुषों की जीवनी का आद्योपान्त अध्ययन किया। भारतीय तथा पाश्चात्य दर्शनों में आस्तिक और नास्तिक दर्शन का गम्भीरता से अध्ययन करते हुए आपने बौद्ध-जैन-आर्यसमाज के विभिन्न ग्रन्थों का ज्ञान प्राप्त किया।
आपके हृदय में राष्ट्र के लिये अन्यों से कुछ भिन्न करने की थी, जिसे पूरा करने के लिये आप युवावस्था में माता-पिता से सदा-सदा के लिये विदाई लेकर घर से निकल पड़े। बाह्य जगत् में आकर आप राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के राष्ट्रव्यापी सेवाकार्यों से बहुत प्रभावित हुए और इसी कारण इनके विभिन्न विद्वानों तथा प्रचारकों से आपकी अति निकटता हो गयी। संघ के प्रचारकों के निःस्वार्थ तपस्यापूर्ण जीवन और भारतमाता को परम वैभव तक पहुँचाने के उनके व्रत को देखकर इस माँ भारती के पुत्र ने राष्ट्रधर्म की सेवा करने के लिये जीवन में ठान ली। इन प्रचारकों को देखकर आपके हृदय में वैराग्य और राष्ट्रसेवा का समुद्र जोर मारने लगा। आपने हिमालय पर्वत की उच्च चोटी पर, गंगोत्री की गुफाओं में, अलखनन्दा तथा नर्मदा के तट पर निरन्तर चौदह वर्ष सात महीनों तक मौन रहते हुए योगसाधना की। योग की उच्च समाधि में पहुँचने के उपरान्त आपके अन्तःकरण में राष्ट्रसेवा का भाव बद्धमूल हो गया। इसी बीच आपके हृदय में भारतभ्रमण की ललक जाग उठी। इसी भाव को हृदय में लेकर आपने भारतवर्ष के छोटे-बड़े प्रायः सहस्रों गाँवों और नगरों को देखा। जहाँ राष्ट्र में व्याप्त गरीबी, बेरोजगारी और अशिक्षा को अति निकटता से देखने का आपको अवसर मिला। समाज की इस कुव्यवस्था को देखकर आपके हृदय में अत्यन्त दुःख और वेदना हुई। इसी कारण आपने आजन्म राष्ट्रधर्म की सेवा करने का माँ गंगा के किनारे पर हरिद्वार में व्रत ले लिया।
यहाँ आपको प्राचीन अवधूत मण्डल आश्रम हरिद्वार में स्वामी हंसप्रकाश जी महाराज के दर्शन हुए और आपने उनके सान्निध्य में राष्ट्रसेवा करनी प्रारम्भ कर दी। योग्य शिष्य को देखकर गुरुजन अत्यन्त प्रसन्न होते हैं। स्वामी हंसप्रकाश जी महाराज तपे और सधे हुए उच्चकोटि के सन्त थे, उन्हें योग्यशिष्य को पहचानते हुए देर न लगी और उन्होंने ‘रूपेन्द्र' नामक इस युवा राष्ट्रभक्त को अपने शिष्य के रूप में दीक्षित कर ‘रूपेन्द्र प्रकाश' नाम प्रदान किया।
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